भारतीय रेलवे स्टेशनों की पहचान माने जाने वाले 'लाल वर्दी' वाले कुली आज अस्तित्व के संकट से जूझ रहे हैं। एक समय था जब ट्रेन के प्लेटफॉर्म पर रुकते ही यात्रियों की पहली नजर कुली पर टिकती थी। भारी भरकम सामान को सिर पर उठाकर एक प्लेटफॉर्म से दूसरे प्लेटफॉर्म तक दौड़ने वाले इन कुलियों के पास पहले दम लेने की भी फुर्सत नहीं होती थी। लेकिन आज वही कुली स्टेशनों के कोनों में बैठकर यात्रियों की राह तकते नजर आते हैं। आधुनिकता की दौड़ में जहां यात्रियों का सफर आसान हुआ है, वहीं इन मेहनतकशों के चूल्हे ठंडे पड़ने लगे हैं।
तकनीक और सुविधाओं का प्रहार
रेलवे स्टेशनों का कायाकल्प और अत्याधुनिक सुविधाओं का विस्तार कुलियों के लिए अभिशाप साबित हो रहा है। स्टेशनों पर अब स्वचालित सीढ़ियां (एस्केलेटर) और लिफ्ट लग गई हैं। पहले जिन सीढ़ियों को चढ़ने के लिए यात्री कुली का सहारा लेते थे, अब वहां मशीनों ने जगह ले ली है। इसके अलावा, अब स्टेशन के गेट तक गाड़ियों की पहुंच आसान हो गई है, जिससे यात्रियों को लंबी दूरी तक पैदल बोझ ढोने की जरूरत नहीं पड़ती।
ट्रॉली बैग: कुली का सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी
कुलियों की कमाई खत्म होने की सबसे बड़ी वजह 'ट्रॉली बैग' का बढ़ता प्रचलन है। पहले भारी सूटकेस और होल्डल होते थे, जिन्हें उठाना हर किसी के बस की बात नहीं थी। अब पहिए वाले बैग्स (ट्रॉली बैग) ने सब कुछ बदल दिया है। बच्चे हों या बुजुर्ग, हर कोई अपने सामान को लुढ़काते हुए खुद ही ले जाता है। कुलियों का कहना है कि अब लोग उन्हें सामान उठाने के लिए नहीं, बल्कि केवल ट्रेन की लोकेशन या शौचालय का रास्ता पूछने के लिए बुलाते हैं।
आर्थिक तंगी और भविष्य का डर
रॉयटर्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, कई स्टेशनों पर कुली दिन भर में मात्र 50 से 100 रुपये ही कमा पा रहे हैं। महंगाई के इस दौर में इतनी कम कमाई से खुद का पेट भरना भी मुश्किल है, परिवार की परवरिश तो दूर की बात है। छोटे शहरों और कस्बाई स्टेशनों पर तो हालात और भी बदतर हैं। यही कारण है कि अब नई पीढ़ी इस पेशे से जुड़ने के बारे में सोचती भी नहीं है। जो दशकों से इस काम में लगे हैं, वे अब केवल सरकारी मदद की आस में दिन काट रहे हैं।
सरकार से उम्मीदें और मांगें
अपनी उपेक्षा से दुखी कुलियों की सरकार से कुछ प्रमुख मांगें हैं:
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रोजगार सुरक्षा: जो कुली अभी जवान और शारीरिक रूप से फिट हैं, उन्हें रेलवे के ग्रुप डी (Group D) में शामिल किया जाए ताकि उन्हें स्थायी आजीविका मिल सके।
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सामाजिक सुरक्षा: बुजुर्ग कुलियों के लिए पेंशन की व्यवस्था की जाए ताकि वे अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में सम्मान के साथ रह सकें।
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सम्मानजनक दर्जा: उन्हें केवल 'सामान ढोने वाला' न मानकर रेलवे के सहायक तंत्र के रूप में देखा जाए।
निष्कर्ष: बदलते दौर में तकनीक का स्वागत अनिवार्य है, लेकिन इस बदलाव की कीमत समाज के उस वर्ग को नहीं चुकानी चाहिए जो दशकों से हमारी यात्रा को सुगम बना रहा है। सबका बोझ उठाने वाले इन कंधों का बोझ अब सरकार और समाज को साझा करने की जरूरत है, ताकि लाल वर्दी की यह पहचान इतिहास के पन्नों में ही न सिमट जाए।