मौत एक ऐसा सत्य है जिसे जानते सब हैं, लेकिन स्वीकार करने से अक्सर कतराते हैं। आमतौर पर लोग अपने अंतिम समय की चर्चा को भी अपशकुन मानते हैं, लेकिन तेलंगाना के जगित्याल जिले के लक्ष्मीपुर गाँव से एक ऐसी कहानी सामने आई है जिसने जीवन और मृत्यु के प्रति नजरिए को ही बदल दिया है। 80 वर्षीय नक्का इंद्रैया (Nakka Indrayya) ने अपनी मृत्यु का इंतजार किसी डर या लाचारी में नहीं, बल्कि एक अनोखे स्वाभिमान और तैयारी के साथ करने का फैसला किया है।
मौत की तैयारी: एक आलीशान नजरिया
इंद्रैया ने अपनी मौत के बाद के 'विश्राम' के लिए जीते-जी अपनी कब्र खुद तैयार करवाई है। उनके लिए यह कोई अंधेरा गड्ढा नहीं, बल्कि एक "महल" है जिसे उन्होंने अपनी पसंद के अनुसार बनवाया है। उनकी दिनचर्या किसी को भी हैरान कर सकती है। वे हर सुबह उठकर अपनी इस अंतिम विश्राम स्थली पर जाते हैं, वहां लगे बगीचे और पौधों को पानी देते हैं, ग्रेनाइट के पत्थरों की धूल झाड़ते हैं और कुछ देर वहीं शांति से बैठते हैं। उनके शब्दों में, "यह मेरा आने वाला घर है और मैं इसे साफ-सुथरा रखना चाहता हूं।"
12 लाख का 'ग्रेनाइट विश्राम गृह'
इस कब्र का निर्माण किसी साधारण निर्माण जैसा नहीं है। इंद्रैया ने इसे अपनी पत्नी की कब्र के ठीक बगल में बनवाया है। इसके निर्माण में उन्होंने करीब 12 लाख रुपये खर्च किए हैं।
-
विशिष्ट सामग्री: इसे पूरी तरह से उच्च गुणवत्ता वाले ग्रेनाइट से बनाया गया है ताकि यह समय के साथ खराब न हो।
-
विशेष कारीगरी: इसके निर्माण के लिए उन्होंने विशेष रूप से तमिलनाडु से कुशल राजमिस्त्रियों को बुलाया था।
-
इंजीनियरिंग का कमाल: यह कब्र 5 फीट गहरी और 6 फीट से ज्यादा लंबी है। इसकी छत को इस तरह से डिजाइन किया गया है कि मौत के बाद केवल एक सब्बल (Crowbar) की मदद से ग्रेनाइट को हटाकर उन्हें वहां रखा जा सके और फिर उसे वापस सील कर दिया जाए।
संघर्ष और स्वाभिमान की कहानी
इंद्रैया का यह असाधारण कदम उनके जीवन के कठिन अनुभवों की उपज है। मात्र 10 साल की उम्र में अपने पिता को खोने वाले इंद्रैया ने जीवन भर कड़ी मेहनत की। उन्होंने अपने जीवन के 45 साल दुबई के कंस्ट्रक्शन सेक्टर में बिताए। वहां की चिलचिलाती धूप में पसीना बहाकर उन्होंने जो पूंजी जमा की, उसे वे अपनी शर्तों पर खर्च करना चाहते थे।
उनके चार बच्चे हैं और परिवार संपन्न है, लेकिन इंद्रैया के भीतर का स्वाभिमान उन्हें किसी पर भी बोझ बनने की अनुमति नहीं देता। वे कहते हैं, "बचपन से मैंने अपना रास्ता खुद बनाया है। मैं नहीं चाहता था कि मेरी मौत के बाद मेरे बच्चों को मेरे अंतिम संस्कार या दफनाने की जगह के लिए परेशान होना पड़े।"
मृत्यु से डर कैसा?
इंद्रैया की यह कहानी समाज को एक गहरा संदेश देती है। जहां दुनिया एंटी-एजिंग और अमरता के पीछे भाग रही है, वहीं इंद्रैया मृत्यु को एक स्वाभाविक अंत के रूप में गले लगा रहे हैं। उनका मानना है कि जब जन्म निश्चित है, तो मृत्यु से भागना कैसा? अपनी कब्र के पास बैठकर वे जो सुकून महसूस करते हैं, वह इस बात का प्रतीक है कि उन्होंने जीवन के साथ-साथ मृत्यु के साथ भी अपनी संधि कर ली है।